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हैदराबाद के खजागुड़ा जैसे जंगलों को शहरीकरण के नाम पर नष्ट किया जा रहा है। इन जंगलों की चीख अब केवल पेड़ों की नहीं, बल्कि वहां बसने वाले वन्यजीवों और स्थानीय समुदायों की भी है। इस विनाश से न केवल पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है, बल्कि यह जलवायु संकट और सामाजिक अन्याय को भी जन्म दे रहा है। विडंबना देखिए — जब आम नागरिक एक पेड़ काटे तो अपराध कहलाता है, लेकिन जब सरकारें या कंपनियाँ हज़ारों पेड़ काटें तो उसे “विकास” कहा जाता है। हमें ऐसे विकास मॉडल की ज़रूरत है जो प्रकृति के साथ तालमेल बैठाए, न कि उसे कुचले। अगर हमने अब भी नहीं सोचा, तो यह तथाकथित “विकास” हमें एक अंधकारमय और निर्जीव भविष्य की ओर धकेल देगा।
किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे”—यह पंक्ति सुनने में भले ही काव्यात्मक लगे, लेकिन इसके पीछे छिपा दर्द, पीड़ा और चेतावनी आज के तथाकथित विकास के मॉडल पर करारी चोट करती है। जब हम हैदराबाद के जंगलों की कटाई और अंधाधुंध शहरी विस्तार की तरफ़ देखते हैं, तो यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है: क्या हम सचमुच बसा रहे हैं, या उजाड़ने की प्रक्रिया को ही “विकास” कहकर महिमामंडित कर रहे हैं?
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